मैंने बारिश समझा जिसे
वो पेड से औसं की बूंदें झड रही थी,
मोहब्बत की गुस्ताखियाँ समझा जिन्हें
वो पीछा छुडाने को लड़ रही थीं,
देखते देखते गुजर गये वो दिन
लगता था जैसे सिर्फ शाम ढल रही थीं,
देखा नही गया मुझसे
जब वो गुफ्तगू किसी गैर से कर रही थी,
पास भी ना आई वो,
जो दूर जाने से डर रही थीं,
दिल मे अब कुछ रहा नहीं,
सब कुछ समझकर भी नासमझ बन रही थी,
मेरा साया भी मुझसे दूर था,
फिर भी वो मेरे सीने मे बस रही थी,
जहर से भी कुछ गिला नही
वो तो पूरे जिस्म को डस रही थी,
मोहब्बत तो दूर तक नहीं,
वो सिर्फ मेरा वक्त जाया कर रही थीं,
यूं तो हो जाता मेरा भी काम आसान
अगर उसने दिल को पढ़ लिया होता,
मगर उसे दिल की जरूरत कहाँ
वो तो सिर्फ चहरा पढ़ रही थी..!!